Lekhika Ranchi

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सनकी अजूबामल: कश्मीरी लोक-कथा

बात उन दिनों की है, जब कश्मीर में छोटे-छोटे शासकों का राज्य था। उन सबके राज्यों की अपनी-अपनी सीमाएँ थीं। सभी राजाओं के अपने नियम व कानून थे।

एक था राजा 'अजूबामल'। उसके नगर के चारों ओर घनी पहाडियाँ थीं। उसके यहाँ सभी चीजों का दाम एक टका था। केसर हो या नमक, सब्जी हो या लकड़ी, कोयला हो या सोना, सब एक ही दाम में तुलते थे।

अजूबामल बहुत मनमानी करता था। उसने कुछ चापलूस मंत्री नियुक्त कर रखे थे। वह उन्हीं की सलाह से सभी काम करता। बेचारी प्रजा डर के मारे कुछ नहीं कहती थी। उस नगर में शिकायत करने वाले को ही जेल हो जाती थी।

एक बार नगर में तीन मित्र आए। वहाँ की दशा देखकर पहले दो मित्रों ने कहा, भैया, इस नगर में रहना खतरे से खाली नहीं है। राजा की सनक का क्या भरोसा? कब किसे दबोच ले?'

तीसरा मित्र सभी चीजों के इतने कम दामों से खुश था। वह बोला, 'मैं तो यहां मजे से जीवन गुजारूँगा। कितनी अच्छी बात है कि मनचाही चीजें मिलेंगी।'

पहले दो मित्रों ने उसे बहुत समझाया कि वह लौट चले किंतु तीसरा मित्र टस-से-मस न हुआ। हारकर पहले दो मित्रों ने अपना पता देकर कहा, 'यदि हमारी जरूरत पड़े तो बुलवा लेना। हम शीघ्र ही मदद को आ जाएँगे।'

तीसरे मित्र ने बे-मन से उनका पता संभाला और मकान की खोज में चल पड़ा। पहले दो मित्रों ने घोड़े को एड़ लगाई और रातों-रात नगर से बाहर निकल गए।

तीसरा मित्र सुबह सोकर उठा। मुँह-हाथ धोकर बाजार की ओर चल पड़ा। वहाँ उसने एक टका देकर स्वादिष्ट मिठाई खरीदी। दोने में से पहला टुकड़ा उठाया ही था कि राजा के सिपाहियों ने उसे चारों ओर से घेर लिया।

हुआ यूँ कि पिछली रात राजा के महल में चोरी हो गई थी। राजा ने आदेश दिया, 'जो भी अजनबी नगर द्वार से भीतर आया है, बेशक वही चोर होगा। उसे फाँसी पर लटका दो।'

अब तो तीसरे मित्र की जान पर बन आई। उसने राजा से अनुनय-विनय की किंतु राजा ने अनसुना कर दिया।
अंत में उसने दोनों मित्रों को सारा हाल लिखकर संदेश भिजवा दिया।
अगले ही दिन फाँसी का समय तय हुआ। बाजार के बीचों-बीच चौक पर फाँसी दी जानी थी।
सारा शहर अजनबी चोर को देखने उमड़ पडा। राजा भी पालकी पर सवार होकर पहुँच गया।

तभी तीसरे मित्र के पास एक खत पहुँचा। वह दोनों मित्रों ने लिखा था। तीसरे ने खत पढ़ा और फाड़कर चबा गया। कुछ ही देर में दोनों मित्र भी आ पहुँचे।
ज्यों ही जल्लाद आगे बढ़ा। पहला मित्र राजा के चरणों में गिरकर बोला, 'महाराज, मेरे मित्र को छोड़ दें। इसके बाल-बच्चे बहुत छोटे हैं।'
तीसरा मित्र वहीं से चिल्लाया, 'नहीं महाराज, मुझे मरने दें। भला मरने से कैसा डरना?'
उसकी बात काटकर दूसरा मित्र बोला, 'तुम दोनों सौ साल जीओ। महाराज तो मुझे ही फाँसी चढ़ाएँगे।'
बस फिर क्या था! एक नौटंकी शुरू हो गई। तीनों मित्र एक-दूसरे से पहले मरना चाहते थे।

राजा अजूबामल चक्कर खा गया। वह कभी एक मित्र की ओर देखता तो कभी दूसरे की ओर।

नगरवासी इस तमाशे को देखकर हैरान थे। अजूबामल ने तीनों मित्र को अपने पास बुलाकर पूछा, 'मुझे सच-सच बता दो कि तुम मरने के लिए इतने उत्सुक क्‍यों हो? वरना मैं सबको जेल में डाल दूँगा।'

तीसरे मित्र ने योजना के मुताबिक हिचकिचाते हुए उत्तर दिया, 'महाराज, आज मरने की बहुत शुभ घड़ी है। इस घड़ी में मरने वाला सीधा स्वर्गलोक जाएगा, इसलिए हम लड़ रहे हैं?'
यह सुनते ही अजूबामल का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया।

कड़क कर बोला, 'प्यारे मंत्रियो, शुभ घड़ी में मरने का सबसे पहला हक राजा को मिलना चाहिए। भला मेरे होते कोई और स्वर्ग में क्‍यों जाएगा? मुझे शीघ्र ही फाँसी पर चढ़ा दो।'
मंत्रियों ने सोचा कि राजा के मरते ही हम राज्य पर कब्जा कर लेंगे।

उन्होंने एक क्षण भी विलंब नहीं किया और अजूबामल को फाँसी पर चढ़ा दिया। प्रजा मंत्रियों की चाल भाँप गई थी। उसने पत्थर मार-मारकर मंत्रियों को अधमरा कर दिया। जानते हो नया राजा कौन बना? पहले मित्र को राजा बनाया गया, क्योंकि उसकी बुद्धिमानी से ही अजूबामल का अंत हुआ था। बाकी दो मित्र मंत्री बने। नगर में उचित कायदे-कानून बने और सभी सुख से रहने लगे।

(भोला यामिनी)

***
साभारः लोककथाओं से संकलित

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1 Comments

Farhat

25-Nov-2021 03:10 AM

Good

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